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Saturday, September 8, 2012

प्रेममय जग सारा

प्रकृति का खेल भी क्या निराला है,
प्रेम तो बस प्रकृति का एक छलावा है!!
सोचो.....
बिना प्रेम के इस दुनियाँ का होता क्या हाल?
न होती बैचेन ये नदियाँ सागर से मिलने को,
न होता बैचेन ये बादल धरती को छूने को,
न होता बैचेन पतझड़ बसंत से गले मिलने को,
न तड़पते ये भर्मर कुमुदनी को चूमने को!!

क्यों लगने लगता है कोई हमको इतना प्यारा,
जिसके ख्वाबों में भूल जाते हैं हम जग सारा!!
क्यों सहती है माँ असहनीय गर्भधारण की पीड़ा?
क्यों भूल जाती है प्रसूति की तकलीफ वो सारा?
वह कौन सी शक्ति है जो खींचती माँ को संतान की ओर?
क्षण में पीड़ा भूल ललाट चूमने झुकती है उसकी ओर!!
तिनका-तिनका जोड़कर क्यों चिड़ियाँ घोसला बनाती?
खुद भूखा रहकर भी अपने बच्चों को है खिलाती!!
वो जानती है ये बच्चे छोड़ कर उड़ जायेंगें एक दिन,
बड़े होकर एक नयी दुनियाँ बसा लेंगें उनके बिन!!
पीछे छुट जायेंगें रोते जन्मदाता और पालनकर्ता,
यह सब जानकर भी प्राणी इस पचड़े में क्यों पड़ता?
इसलिए तो कह रही हूँ.....
प्रेम प्रकृति की बुनी हुई है एक आकर्षक सुंदर जाल,
पृथ्वी पर जीवन कायम रखने की उसकी सोची समझी चाल!!
                                                                                 Asha Prasad "ReNu"

सरस्वती स्तुति


हे श्रुतदेवी, तुम मुझको वर दे कोई ऐसा,
शब्द-हिमालय से निकालूँ कोई ऐसी गंगा,
जो ध्वनि मात्र से कर दे सबके मन को चंगा ।


बारिस हो शब्दों की चटके नवकोपलें ऐसा,

महक उठे हृदय-उपवन रजनीगान्धा जैसा ।
कोमल शब्द-सुरों से बनाऊँ एक अनोखा राग,
वीणा के सप्त स्वर से फूटे प्रेम की धार ।

बोऊं शब्द-बीज धरा में जो पेड़ उगाये ऐसा,
जीवन को दे विश्राम क्षुधा तृप्त करे मन का ।
रंग-बिरंगी शब्द-मोतियों से बनाऊं माला,
जिसमें लगे हों एकता का अटूट धागा ।

फूकूं शब्द-शंख जिससे शंख-नाद हो ऐसा,
ॐ शांति शब्द से गूंज उठे ब्रह्माण्ड समूचा ।
हे श्रुतदेवी, तुम मुझको वर दे दे अब ऐसा.....

                                                           Asha Prasad "ReNu"

कल्पना



नयन से नींद उड़ कर, 
रजत चाँदनी के साथ चली !


दूर नगर के कोलाहल से,
दूर परिजनों के घर से !



शीतल झड़ते निर्झर के,
वन-हरियाली के ऊपर से !


भीनी-भीनी रजनीगंधा के,
मादकता में मदमायी सी !

चली चाँद से मिलने को,
तारागण के बीच भ्रमायी सी !
                                  
                                       Asha Prasad "Renu"

जनता



संभलो ए दिल्ली कि जनता जग गई है,
ठंडी पड़ी लहू आज चिंगारी बन गई है !!
गाँधी-गौतम की तरह शांत जनता जीती है,
पर शत्रु हठ करे तो रक्त भी वह पीती है !! 


वेदना में है जनता दिल्ली गा रही मल्लहार,
मरहम लगाने की बजाय कर रही प्रहार !!
यहाँ भूख से आधी जनता हो रही बेहाल,
वहां छप्पन पकवानों से भरी है तेरी थाल !!

जनता बहाए खून-पसीना तू तिजोरी भर रही है,
इन्हें नसीब पंखा भी नहीं तू ए.सी में सो रही है !!
कुपित जनता के क्रोध से अब बच नहीं पाओगी,
अड़ी रही ए दिल्ली तो धूल-कण बन उड़ जाओगी !!


                         Asha Prasad "ReNu"

अरुणोदय ( Daybreak )

[शनै -शनै (gradually - gradually); विलुप्त (disappear); चाँदनी (moon-light); क्षितिज (horizon); स्वर्ण रथ (Golden Chariot); वसुन्धरा (Earth); किरण (ray); विहग-वृंद (flock of birds); सुमन-चमन (Flower garden); हिमगिरी (Himalayas); भागरथी (Holy River Ganga); करुणा (compassion); उषा (Sunup); कनक-थाल (Gold - tray); नवआशा (New Hope); नवोत्साह (New excitement);]

शनै -शनै तारामंडल विलुप्त होने लगा !

चाँदनी समेटे चाँद भी क्षितिज की ओर चला !!

स्वर्ण-रथ से उतरी वसुन्धरा पर किरण !
चहक उठे विहग-वृंद खिला सुमन-चमन !!


रवि-रश्मि छूकर हिमगिरी के भाल को !

भागरथी बन सींच रही करुणा से संसार को !!

उषा सजाये कनक-थाल में नवआशा, नवोत्साह !
प्राणियों में कर रही नव-जीवन-रस संचार !!
 "ReNu"



( ग़ज़ल ) बेरूखी इस कदर दर्द-ए-दिल बढ़ायेंगी......

बेरूखी इस कदर दर्द-ए-दिल बढ़ायेंगी 
मेरी साँसें भी मुझ से जुदा हो जायेंगी !!

भूल पाएंगे भी ना मेरे स्र्ख़सत के बाद

मेरी बातें ख़ामोशी में सता के जायेंगी !!

जिक्र जब भी कहीं पे होगा मेरे नाम का
दिल तड़पने लगेगा आँखें छलक जायेंगी !!

जनाज़ा सजने लगा कफ़न ले आइए आप
देर हुई तो हमारी मयत निकल जायेंगी !!

बेरूखी इस कदर दर्द-ए-दिल बढ़ायेंगी
मेरी साँसें भी मुझ से जुदा हो जायेंगी !!
            Asha Prasad "ReNu"

Friday, September 7, 2012

( ग़ज़ल ) न मै ख़्वाब हूँ न फ़रेब हूँ.....

न मै ख़्वाब हूँ न फ़रेब हूँ,
मै एक ख़ुशनुमा ऐहसास हूँ !


मेरे वज़ूद पे न जाना तुम,
मेरे होने पर ऐतबार कर !


तेरी बेक़रारी का सबब हूँ ग़र,
तो, तेरे दर्द की दावा भी हूँ !

हौसला ये इश्क़ में है अगर,
तो, मेरे रूह का दीदार कर !

महसूस कर सके तो कर,
मै तो हर लम्हा तेरे पास हूँ !
                         Asha Prasad "ReNu"


ओस की बूंद

मै हूँ एक नन्हीं सी अनमोल,
नवरचित,नववधू सी सजी,
पूरब की अरुणाई की ओढ़े चूनर,
मखमली दूब पर छुईमुई सी खड़ी,
सतरंगी आभा बिखेरती ओस की बूंद !!
पंछियों ने गाये अभिनंदन गीत,
चटकती कलियों ने बिखेरी सुरभि
पुष्प दलों का बना सिंहासन,
जहाँ बैठी उसी को दीप्तिमान करती,
अपने भाग्य पर इठलाती ओस की बूंद!!
स्पर्श मात्र से बिखरने वाली,
एक मिथ्या सी प्रतीत होती,
सूरज की तेज होती रौशनी के साथ,
शोकाकुल धीरे धीरे विलुप्त होती,
स्वयं के अस्क की तरह ओस की बूंद!!
अपने पीड़ा पर तरस करती हुई,
असुरक्षित, विकल और कंपित,
प्रचंड सूरज के ताप में जलती हुई,
प्रभाकर की प्रभा के आगे बेबस,
महाशून्य में समाती ओस की बूंद!!
(क्षणभंगूर जीवन पर अहंकार न करने का
पाठ पढ़ाती मैं हूँ एक नन्हीं सी ओस की बूंद) "ReNu"


आता जब सागर में भूचाल


आता जब सागर में भूचाल,
लहरें बनतीं विकराल काल,
नाविक हताश सब होते हैं,
पतवार छोड़ होश खोते हैं,
पर उनमें होता एक प्रखर,
जो प्रयत्न निरंतर करता है,
साहिल तक वही पहुँचता है,
नाविक वह कुशल कहलाता है,
नौका भवंर से निकाल जो लाता है !!

जीवन भी तो है एक सफर,
विघ्न-बाधाओं से ये भरा पथ,
वीर मनुष्य जो होता है,
बाधाओं को गले लगाता है,
साहस की धारण किये कवच,
पर्वत से भी टकरा जाता है,
सच्चा पथिक वही कहलाता है,
जो दुःख-सुख में विचलित हुए बिना,
जीवन-पथ पर अग्रसर रहता है !!"ReNu"

    Copyright© reserved by Poetess Asha Prasad "ReNu" 

एकाकीपन

ये गहराती हुई शाम, 
बढता हुआ दर्द का एहसास, 
ढलता हुआ सूरज,
पंछियों की कोलाहल,

मंदिर के आरती की गूंज,
धुंधलाये हुए रास्ते,
ये शरद हवा के थपेड़े,
सांसों की अनियमितता,
लड़खड़ाते हुए कदम,
आँखों में छलके हुये आँसू,
एसे में....
चुपके से ख्यालों में तेरा आना,
आकर धीरे से मुस्कुराना,
इस शाम की तन्हा उदासी में,
जैसे....
हजारों दीपक का एक साथ जल जाना !!
तेरा मुस्कुराना ....:)) 

                             "ReNu"  

                                               Copyright© reserved by Poetess Asha Prasad "ReNu"          

Thursday, September 6, 2012

आज बरसे फिर नयन


बिरह की इस प्रखर आग में,
झुलस रहा है मेरा मन !
आज बरसे फिर नयन....

बहु भावों से है विह्वल,
आज फिर से अंत:मन !
उड़ी भावना जितनी ऊँची,
मिले आज उतने ही गम !
लुटी राह में खड़ी अकेली,
कैसे गाऊँ मैं सरगम !
आज बरसे फिर नयन....
बहे स्मृतियों के बयार,
आज होके फिर मगन !
प्रेम राग से गूंज रहा है,
चाहूं दिशा और गगन !
कभी न हो ये जीवन सूना,
मधुर प्राणों का मिलन !
आज बरसे फिर नयन....
   Asha Prasad "ReNu"

Wednesday, September 5, 2012

न जाने तुम कहाँ चले गए


न जाने कितनी रातें आई
न जाने कितनी गुजर गईं
झपकती रही आखें मेरी 
पर नींद कभी आई नहीं !!

हर पल सिसकी सांसें मेरी
जिन्दगी में लगी कुछ कमी
याद तो आती रही बार-बार
पर लौट कर तुम आये नहीं !!

आँसू बहाती मै रह गयी
तुम मुस्कुराते रह गए
साथ मेरे सिर्फ तन्हा रहा
न जाने तुम कहाँ चले गए !!
  Asha Prasad "ReNu" 

है क्या कोई प्रतीक्षारत ?


हिम शिलाखंड पिघलकर 
गिरी के शिखर से उतरकर 
शीतल जल की ये प्रबल धार
बढ़ती करती हुई भीषण नाद !


गिरी के छाती को चीर कर 

शिला चट्टानों को तोड़ कर
करती नूतन पथ का निर्माण
बढ़ती रहती प्रति क्षण अविरल !

उठता फेनिला ये सफेद झाग
क्या है तेरे ह्रदय का उन्माद ?
कहाँ जाने को इतनी आकुलता
है क्या कोई प्रतीक्षारत ?
     Asha Prasad "ReNu"