Friday, February 20, 2015

"दासत्व"


हैं निखर आये वो कैसे,
आज मेरे रंग में रंगकर।
सिर झुकाये रहते थे जो,
आज चलते हैं वो तनकर।
 

मानकर बैठे थे अबतक,
दासता है उनकी किस्मत।
तोड़कर अपने इस भरम को,
हैं अचंभित वो अपने ऊपर।।

हक़ नहीं देता है कोई,
प्यार से अगर मांगने से।
छीनने में ही है भलाई,

हर्षित हैं वो ये जानकर।।

निर्बलों को रौंदना,
सदियों से चलता रहा है।
बदल दिया इस परंपरा को,

बाहुबली से वो मुक्त होकर।। "ReNu"

Copyright© reserved by Poetess Asha Prasad "ReNu"