Friday, September 7, 2012

प्रेममय जग सारा

प्रकृति का खेल भी क्या निराला है,
प्रेम तो बस प्रकृति का एक छलावा है!!
सोचो.....
बिना प्रेम के इस दुनियाँ का होता क्या हाल?
न होती बैचेन ये नदियाँ सागर से मिलने को,
न होता बैचेन ये बादल धरती को छूने को,
न होता बैचेन पतझड़ बसंत से गले मिलने को,
न तड़पते ये भर्मर कुमुदनी को चूमने को!!

क्यों लगने लगता है कोई हमको इतना प्यारा,
जिसके ख्वाबों में भूल जाते हैं हम जग सारा!!
क्यों सहती है माँ असहनीय गर्भधारण की पीड़ा?
क्यों भूल जाती है प्रसूति की तकलीफ वो सारा?
वह कौन सी शक्ति है जो खींचती माँ को संतान की ओर?
क्षण में पीड़ा भूल ललाट चूमने झुकती है उसकी ओर!!
तिनका-तिनका जोड़कर क्यों चिड़ियाँ घोसला बनाती?
खुद भूखा रहकर भी अपने बच्चों को है खिलाती!!
वो जानती है ये बच्चे छोड़ कर उड़ जायेंगें एक दिन,
बड़े होकर एक नयी दुनियाँ बसा लेंगें उनके बिन!!
पीछे छुट जायेंगें रोते जन्मदाता और पालनकर्ता,
यह सब जानकर भी प्राणी इस पचड़े में क्यों पड़ता?
इसलिए तो कह रही हूँ.....
प्रेम प्रकृति की बुनी हुई है एक आकर्षक सुंदर जाल,
पृथ्वी पर जीवन कायम रखने की उसकी सोची समझी चाल!!
                                                                                 Asha Prasad "ReNu"

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